नफ़रत की आग (कहानी)

वे लोग अपने दुश्मनों से बेहद ख़फ़ा थे। उनका गुस्सा इतना तेज़ था कि वे दुश्मनों का नामोनिशान मिटा देना चाहते थे। जमा होकर उन्होंने सलाह-मशविरा शुरू किया। हर कोई कुछ अलग सुझाव दे रहा था। आखिर एक आदमी बोला, “हमें उनकी पूरी बस्ती को आग लगा देनी चाहिए!”

सबको यह बात पसंद आई। उन्होंने मिलकर आग जलाई। जब आग ज़ोरों से भड़की तो उसने सवाल किया, “मुझे क्यों बुलाया?”

उनके नेता ने आगे बढ़कर, नफरत से भरी निगाहों से दूर बसे गाँव की ओर इशारा करते हुए कहा, “वह देखो! वह बस्ती हमारे कट्टर दुश्मनों की है। पूरी बस्ती को जलाकर राख कर दो, एक भी जान बाकी न रहनी चाहिए।”

आग ने एक शैतानी ठहाका लगाया और तेज़ी से उस बस्ती की तरफ बढ़ चली। वो लोग भी जोश में नारे लगाते, जय-जयकार करते, खुशी मनाते उसके पीछे-पीछे भागे।

जैसे ही आग बस्ती में पहुँची, उसने तबाही मचानी शुरू कर दी। चारों तरफ सिर्फ चीखें-पुकार सुनाई देने लगी। बच्चे हों या बूढ़े, आग सबको जलाने लगी। वो लोग और भी जोश में आ गए, ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाने लगे।

थोड़ी ही देर में पूरी बस्ती राख के ढेर में बदल गई। हवा में सिर्फ धुआँ और जले हुए मांस की बदबू थी।

आग वापस उनके पास लौटी और मुस्कुराते हुए बोली, “सब जल गए, कोई नहीं बचा। अब क्या जलाऊँ?”

लोगों ने राहत की साँस ली। नेता बोला, “हमारे दुश्मन तो ख़त्म हो गए। अब हमें तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं। तुम ठंडी हो जाओ।”

आग बोली, “ऐसे कैसे ठंडी हो जाऊँ? मेरा काम तो जलाना है। मुझे जलाने के लिए कुछ न कुछ तो चाहिए ही!”

वे बोले, “दुश्मनों की बस्ती तो जल चुकी। अब जलाने को कुछ बाक़ी ही नहीं बचा।”

आग की ‘आँखें’ गुस्से से और भी ज़्यादा दहक उठीं। उसने इधर-उधर नज़र घुमाई। थोड़ी दूर पर उसे एक और बस्ती दिखाई दी।

आग मुस्कुराई, “कैसे कुछ नहीं बचा? वो देखो न! एक और बस्ती है। उसे जला देती हूँ।”

यह सुनते ही उन लोगों के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। वे चिल्लाए, “अरे नहीं! हरगिज़ नहीं! वो तो हमारी ख़ुद की बस्ती है! हमारे घर-परिवार वहाँ हैं! तुम उसे नहीं जला सकती!”

आग और भी ज़्यादा दहकी और गरजते हुए बोली, “मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि बस्ती किसकी है? मेरा काम जलाना है। मुझे जलाने के लिए ईंधन तो चाहिए!” इतना कहकर उसने एक और ज़ोरदार ठहाका लगाया और पहले से भी ज़्यादा तेज़ी से उस बस्ती की तरफ बढ़ी जहाँ उनके अपने रहते थे।

वे लोग बेबस, घबराए हुए, रोते-चीखते, मिन्नतें करते उसके पीछे भागे।

“रुको! हमें माफ़ करो! हमारे बच्चे वहाँ हैं!”

आग उनकी पुकारों से कहीं अधिक तेज थी। उनकी अपनी बस्ती में पहुँचते ही उसने फिर से कहर बरपाना शुरू कर दिया। फिर वही चीखें लेकिन इस बार उनके अपनों की। जब तक वे हाँफते-कराहते वहाँ पहुँचे, उनकी आँखों के सामने उनकी पूरी दुनिया, उनका घर-परिवार, सबकुछ… सिर्फ धधकता हुआ अंगारों और राख का एक विशाल ढेर बन चुका था। धुआँ आसमान को काला कर रहा था और वही भयानक गंध,तभी उस राख के ढेर से आग फिर सामने आई। वह अभी भी भूखी थी।

उसका सवाल उनके दिल में डर बिठा गया, “अब… क्या जलाऊँ?”

आग और भी ज़्यादा दहकी और गरजते हुए बोली, “मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि बस्ती किसकी है? मेरा काम जलाना है। मुझे जलाने के लिए ईंधन तो चाहिए!” इतना कहकर उसने एक और ज़ोरदार ठहाका लगाया और पहले से भी ज़्यादा तेज़ी से उस बस्ती की तरफ बढ़ी जहाँ उनके अपने रहते थे।

वे लोग सन्न रह गए। उनकी आँखों में आँसू सूख गए थे। अफ़सोस से वे अपना सिर पीटने लगे। उनके पास कोई जवाब नहीं था। सब कुछ तो ख़त्म हो चुका था।

आग ने देखा कि अब जलाने को सिर्फ ये ही लोग बचे थे। उसकी लपटें एक भयानक मुस्कान के साथ फैल गईं, “कोई बात नहीं। फिलहाल तुम्हीं सही…”

और उसने एक झपट्टे में उन सबको अपनी गर्म जलती बाँहों में जकड़ लिया। उनकी चीखें हवा में गूँजीं। उनका बदन दर्द से तड़प उठा।

आग ने उन्हें जलाते हुए एक आख़िरी शैतानी ठहाका लगाया। उसकी भूख अब भी बाकी थी। जैसे ही वे जलकर ख़ाक हुए, वह फिर लपकी – अपने अगले निशाने की तलाश में, किसी और बस्ती की तरफ, जहाँ शायद कोई और गुस्से में उसे बुलाने की गलती करे।

समाप्त

✍️शहाब ख़ान ‘सिफ़र’

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